भ्रम

काश इतना टूटा न होता
मुझे इतना टूटना नहीं था...
तुम होते तो शायद
जोड़ कर रखते मुझे
तुम तो कभी दूर नहीं होना चाहते थे
मुझसे!
तुम्हारी चुनिन्दा
अजीज़ चीज़ों में
मैं भी तो शामिल था
पर अब नहीं रहा
उतना अजीज़
शायद!
इन चार दीवारी सन्नाटों में
छोड़ कर मुझे
जाने किन ख़लाओं में
तुम खो गए हो
अब जब वाकई ज़रूरत है
मुझे तुम्हारी...
एक ग़म कटा नहीं
दूसरा नाहक़ सर पर है
तुम होते तो
बाँट लेता तुमसे
दर्द सारे
सारे ग़म...
मेरा भरोसा तो न टूटता
मेरा भ्रम तुम जरुर तोड़ देते...
इन फ़ासलों में
कैसा बंट गया हूँ
के न सहने का जिगरा होता है
और न कहने को तुम...
मुन्तज़िर तो उम्र भर रहूँगा
तुम्हारी वापसी का...
पर मंज़र शायद बहुत सा
बदल चुका होगा...
तकदीरें बदल चुकी होंगी
बदल चुका होगा फ़ैसला भी
शायद मैं भी बहुत सा
बदल जाऊं...
लेकिन यूँ
टूटने जुड़ने का डर
हमेशा झकझोड़ेगा मुझे...
भरोसा उठने लगा है
अब ख़ुद से
और तुमसे भी...
अब अगर कभी
लौट कर आ भी जाओ
तो रहने देना मुझे
इसी भ्रम में
क्योंकि
अब तो भ्रम में ही सुकून आता है
और सुकून से हूँ भ्रम में मैं...
-चित्रार्थ

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