कुछ पल आज़ादी के....
आज़ादी दिवस और मेरी आज़ादी.....
...मेरी दिनचर्या पर एक नज़र...
बीतते- बिताते एक और दिन यूं ही निकल गया....
छुट्टियाँ सिर्फ कहने को छुट्टियाँ हैं |
जब तक दिनचर्या एक ऊट-पटांग-सा रूप न लेले तब तक कॉलेज से मिली एक महीने की छुट्टी का आभास ही नहीं होता....
देर-सवेर उठना, उठ कर घड़ी देखकर फिर सो जाना, उठते ही सबसे पहले कंप्यूटर के दर्शन करना, मन आने पर नहाना, मन न होने पर पचासों झूठे बहाने बना देना..... ये सभी कुछ मेरी दिनचर्या में शामिल है |
कुछ इसी तरह आज का दिन भी उदित हुआ...
रोज़ की तरह माँ ने आज भी पहले तो प्यार भरी आवाज में पुकारना शुरू किया, पर धीरे-धीरे वो प्यार भरी आवाज़ कानो को चुभने-सी लगीं और आँखें खोलने पर ये मालूम हुआ की माँ सिर पर खड़ी हैं, पापा वक़्त से पहले ही आजादी दिवस मनाने सेलिब्रेशन के ग्राउंड पर पहुंचे हुए हैं, और माँ को स्कूल तक छोड़ने की ड्यूटी आज मेरी है....!
ये मेरे लिए सबसे बड़ी सजा है | इस लिए नहीं कि मुझे, "माँ" को छोड़ने जाना है बल्कि इसलिए क्योंकि "मुझे" माँ को छोड़ने जाना है.... सवेरे उठ कर अगर कोई मुझे मेरी फेवरेट डिश "चिल्ली पनीर" खाने को भी कहे तो मैं न खाऊं |
पर खैर काम तो काम, मैंने तय किया कि इसके पहले कि मैं लात खा जाऊं और मेरे कारण मम्मी स्कूल के लिए लेट हो, बेहतर यही होगा कि मैं तुरंत जाकर उन्हें स्कूल पहुंचा आऊं |
मम्मी को स्कूल छोड़ कर लौटने के बाद भी निद्रा मुझे अपने आघोष में ले रही थी | पर अब बारी थी मुझमे जाग चुके दूसरे भूत की....
ये भूत आजकल लोगो को बहुत तेज़ी से पकड़ रहा है... नौजवान लौंडो और लड़कियों पर तो ये ऐसा हावी है जैसे एक शराबी के सिर पर शबाब | मेरे माता-पिता की माने तो ये एक नशा ही है.... और मैं इस नशे में ऐसा लिप्त हूँ कि मुझे बाकी किसी चीज़ कि सुध ही नहीं है.....
ये नशा है 2004 से प्रचलन में आये ORKUT और FACEBOOK का...
नींद से एक बार जागने के बाद बिस्तर भी उतना आकर्षित नहीं करता, जितना की कंप्यूटर स्क्रीन | अपनी दिल्ली की भाषा में कहें तो हर वक़्त बस एक बार अकाउंट चेक करने की "चूल-सी" मची रहती है मन में....
यही लगता रहता जैसे न जाने कौन-सी ऐसी, मेरी जरूरी बातें उसमे दबी हुई हैं जिन्हें जाने बगैर मैं रह नहीं सकता और उन्हें ढूँढता हुआ, मैं इन्टरनेट के जालों में उलझता चला जा रहा हूँ.....
तभी पीछे से माँ की आवाज आएगी की तुम बस चौबीस घंटे कंप्यूटर पर आँखें गड़ाए बैठे रहा करो, जिस दिन आखों पर मोटे ग्लास का चश्मा चढ़ जायेगा मेरी तरह, तब लेकर रोगे | इसके बाद अंतर बस इतना होता है कि मैं कंप्यूटर स्क्रीन से हटकर वौक-मैन लगा कर बैठ जाता हूँ.....
अब इस बार शामत आती है मेरे कानों कि.... माँ गुस्साते हुए फिर आएँगी और इस बार कानों में ठेंपी लगा कर बैठे रहने के लिए चिल्लायेंगी.... क्योंकि वो बाहर से मुझे आवाज़ लगा रही है और मैं हूँ जो यहाँ अपनी सुरीली दुनिया में मदहोश पड़ा हूँ | कोई चिल्ला रहा है तो चिल्लाने दो, कोई दरवाज़ा पीट रहा है तो पीटने दो, फोन कि घंटियाँ 3 से 4 बार बज कट गयीं तो क्या फर्क पड़ता है?.......
जिसे सौ कि गरज होगी वो दोबारा घंटी बजाएगा, दोबारा बुलाएगा......
दरअसल मैं ऐसा कुछ नहीं सोचता....ऐसा मेरी माँ मेरे बारे में सोचती हैं.....
चलो ये भी मंजूर कि आँखें न फोडूं, कान की भी भरपूर कद्र करूँ और वो सभी चीज़े न दोहराऊं जिससे माँ को गुस्सा आता है....
तो फिर मैं आखिर करूँ क्या? इसका उत्तर मुझे यही मिलता है....
- पापा से बाते करो....
इतने दिनों के बाद घर आये हो दिल्ली में कैसे रहते हो क्या करते हो.... ये सब बातें बांटों पापा के साथ...
इन्ही सब बातों में दोपहर के 2 .30 बज जाते हैं, पापा ऑफिस लौट चुके होते हैं और अब मैं भी खाना-पीना खाकर, निश्चिन्त होकर यही सोच रहा होता हूँ की अब आराम से कंप्यूटर पर उन्ही दो भूतों के साथ ऐश काटूँगा....|
आजा ! बेटा.....
तभी मेरे दाहिने हिस्से से कुछ ऐसी ही आवाजें आना शुरू हो जाती है....!!!
ये आवाज़ नियमित रूप से रोज़ 3 बजे से 4 बजे के बीच ही आती है.... इस आवाज की विशेषता ये है की ये मुझे भिन्न-भिन्न नाम से पुकारती है और मुझसे पैर दबाने के लिए आग्रह करती है.... और मेरे दो मिनट रुक जाने के आग्रह पर एक लात धर देने की धमकियां देती है.....
ये आवाज़ मेरी माँ की होती है..... फिर मैं दुनिया का एक और सबसे भारी काम करने के लिए मजबूर होता हूँ !..... पर कानों में ठेंपी ठूस कर मैं इस काम को भी जल्दी से जल्दी अंजाम देता हूँ....
5 बजने के साथ ही पापा ऑफिस से घर आ जाते हैं.....
और अब मेरे से चाय बनाने के लिए आग्रह किया जाता है..... ओह! एक और भारी काम.....
इस बीच मैं सोने की भर-पूर कोशिश करता हूँ.... और मुझे चाय बनाने नहीं आती इस बात का मम्मी और पापा को विश्वास दिलाता हूँ....|
बेशर्मी की इस हद को पार करने के साथ ही मेरी माँ चाय के 3 कप सामने टेबल पर लाकर रखती हैं..... और अब मैं एक बार फिर निद्रा के आघोष में होता हूँ..... अब मुझसे एक और एहसान करने की गुजारिश की जाती है, वो ये की मैं उठ कर, पानी हो रही चाय को जल्दी पी लूँ |
पर जाने कहाँ की ढीढता मुझमे भरी है, जो कान पर जू तक नहीं रेंग रही | अंततः होता यही है की मम्मी मेरे नाम पर रखी उस चाय को पी लेती है....
कई बार तो मुझे अपने इस निकम्मेपन पर शर्म भी आती है..... पर जैसा मेरी माँ जानती है शर्म आती है और फिर चली जाती है....|
रात होने के साथ ही खाना खाने की सिफारिश, फिर सोने की सिफारिश और फिर अगले दिन जल्दी उठने की सिफारिश मेरी रोज़ की दिनचर्या का हिस्सा बन गयी है....|
पर यहाँ पर जो भी दिनचर्या हो..... दिल्ली में ऐसी दिनचर्या होती तो कॉलेज से अबतक पचासों और लैटर घर पहुंचे होते....
पर इस बात का यकीन पापा को कौन दिलाये?
पापा का तो, बस यही कहना होता है कि -
दिल्ली में भी ये साहबजादे 12 बजे तक सोते होंगे, वहां कौन-सा हम देखने जा रहे हैं?
सोते हैं इसीलिए तो कॉलेज नहीं जाते है ये, इग्जाम भी सोने के चक्कर में ही छोड़ा होगा इन्होने...?
इनके खाने-पीने का हिसाब सही नहीं है वहां, बस MAGGIE और फास्ट फ़ूड खाते होंगे ये दिल्ली में.....?
पर पापा इस बात को समझिये कि मेरी छुट्टियाँ चल रही है इसलिए मेरी दिनचर्या ऐसी है.....
माँ तो इस बात को समझ जाती है....
पर पापा थोडा भड़क जाते हैं.....
इस कलंकित करने वाली दिनचर्या के लिए माफ़ करियेगा पापा....
पर सच कहूँ तो इस बार, जैसे घर आकर कोई काम ही नहीं सूझ रहा.... इसलिए सो-सो कर ही समय बिता रहा हूँ....
कंप्यूटर के आगे बैठे-बैठे भी सिर चकराने लगता है....
कंप्यूटर भी जाने क्या सोचता होगा मेरे बारे में.... अगर ये बेचारा बोल सकता तो शायद अबतक मुझे लाखों गालियाँ सुना चुका होता.....
वैसे अब बस आशा ये है दिल्ली जा कर जल्द से जल्द अपने काम में लग जाऊ.... सपने देख रखे हैं.... मम्मी पापा को भी सपने दिखा रखे हैं..... दोस्तों को भी दिलासा दे रखा है..... तो उसे पूरा भी तो करूँ.....
बस इसी आशा में जल्द से जल्द 20 तारिख के आने का इंतज़ार कर रहा हूँ....
कब 20 तारिख आएगी और मैं दिल्ली वापस लौटूंगा....
...मेरी दिनचर्या पर एक नज़र...
बीतते- बिताते एक और दिन यूं ही निकल गया....
छुट्टियाँ सिर्फ कहने को छुट्टियाँ हैं |
जब तक दिनचर्या एक ऊट-पटांग-सा रूप न लेले तब तक कॉलेज से मिली एक महीने की छुट्टी का आभास ही नहीं होता....
देर-सवेर उठना, उठ कर घड़ी देखकर फिर सो जाना, उठते ही सबसे पहले कंप्यूटर के दर्शन करना, मन आने पर नहाना, मन न होने पर पचासों झूठे बहाने बना देना..... ये सभी कुछ मेरी दिनचर्या में शामिल है |
कुछ इसी तरह आज का दिन भी उदित हुआ...
रोज़ की तरह माँ ने आज भी पहले तो प्यार भरी आवाज में पुकारना शुरू किया, पर धीरे-धीरे वो प्यार भरी आवाज़ कानो को चुभने-सी लगीं और आँखें खोलने पर ये मालूम हुआ की माँ सिर पर खड़ी हैं, पापा वक़्त से पहले ही आजादी दिवस मनाने सेलिब्रेशन के ग्राउंड पर पहुंचे हुए हैं, और माँ को स्कूल तक छोड़ने की ड्यूटी आज मेरी है....!
ये मेरे लिए सबसे बड़ी सजा है | इस लिए नहीं कि मुझे, "माँ" को छोड़ने जाना है बल्कि इसलिए क्योंकि "मुझे" माँ को छोड़ने जाना है.... सवेरे उठ कर अगर कोई मुझे मेरी फेवरेट डिश "चिल्ली पनीर" खाने को भी कहे तो मैं न खाऊं |
पर खैर काम तो काम, मैंने तय किया कि इसके पहले कि मैं लात खा जाऊं और मेरे कारण मम्मी स्कूल के लिए लेट हो, बेहतर यही होगा कि मैं तुरंत जाकर उन्हें स्कूल पहुंचा आऊं |
मम्मी को स्कूल छोड़ कर लौटने के बाद भी निद्रा मुझे अपने आघोष में ले रही थी | पर अब बारी थी मुझमे जाग चुके दूसरे भूत की....
ये भूत आजकल लोगो को बहुत तेज़ी से पकड़ रहा है... नौजवान लौंडो और लड़कियों पर तो ये ऐसा हावी है जैसे एक शराबी के सिर पर शबाब | मेरे माता-पिता की माने तो ये एक नशा ही है.... और मैं इस नशे में ऐसा लिप्त हूँ कि मुझे बाकी किसी चीज़ कि सुध ही नहीं है.....
ये नशा है 2004 से प्रचलन में आये ORKUT और FACEBOOK का...
नींद से एक बार जागने के बाद बिस्तर भी उतना आकर्षित नहीं करता, जितना की कंप्यूटर स्क्रीन | अपनी दिल्ली की भाषा में कहें तो हर वक़्त बस एक बार अकाउंट चेक करने की "चूल-सी" मची रहती है मन में....
यही लगता रहता जैसे न जाने कौन-सी ऐसी, मेरी जरूरी बातें उसमे दबी हुई हैं जिन्हें जाने बगैर मैं रह नहीं सकता और उन्हें ढूँढता हुआ, मैं इन्टरनेट के जालों में उलझता चला जा रहा हूँ.....
तभी पीछे से माँ की आवाज आएगी की तुम बस चौबीस घंटे कंप्यूटर पर आँखें गड़ाए बैठे रहा करो, जिस दिन आखों पर मोटे ग्लास का चश्मा चढ़ जायेगा मेरी तरह, तब लेकर रोगे | इसके बाद अंतर बस इतना होता है कि मैं कंप्यूटर स्क्रीन से हटकर वौक-मैन लगा कर बैठ जाता हूँ.....
अब इस बार शामत आती है मेरे कानों कि.... माँ गुस्साते हुए फिर आएँगी और इस बार कानों में ठेंपी लगा कर बैठे रहने के लिए चिल्लायेंगी.... क्योंकि वो बाहर से मुझे आवाज़ लगा रही है और मैं हूँ जो यहाँ अपनी सुरीली दुनिया में मदहोश पड़ा हूँ | कोई चिल्ला रहा है तो चिल्लाने दो, कोई दरवाज़ा पीट रहा है तो पीटने दो, फोन कि घंटियाँ 3 से 4 बार बज कट गयीं तो क्या फर्क पड़ता है?.......
जिसे सौ कि गरज होगी वो दोबारा घंटी बजाएगा, दोबारा बुलाएगा......
दरअसल मैं ऐसा कुछ नहीं सोचता....ऐसा मेरी माँ मेरे बारे में सोचती हैं.....
चलो ये भी मंजूर कि आँखें न फोडूं, कान की भी भरपूर कद्र करूँ और वो सभी चीज़े न दोहराऊं जिससे माँ को गुस्सा आता है....
तो फिर मैं आखिर करूँ क्या? इसका उत्तर मुझे यही मिलता है....
- पापा से बाते करो....
इतने दिनों के बाद घर आये हो दिल्ली में कैसे रहते हो क्या करते हो.... ये सब बातें बांटों पापा के साथ...
इन्ही सब बातों में दोपहर के 2 .30 बज जाते हैं, पापा ऑफिस लौट चुके होते हैं और अब मैं भी खाना-पीना खाकर, निश्चिन्त होकर यही सोच रहा होता हूँ की अब आराम से कंप्यूटर पर उन्ही दो भूतों के साथ ऐश काटूँगा....|
गुड्डू......!
ए.... लालू......!आजा ! बेटा.....
तभी मेरे दाहिने हिस्से से कुछ ऐसी ही आवाजें आना शुरू हो जाती है....!!!
ये आवाज़ नियमित रूप से रोज़ 3 बजे से 4 बजे के बीच ही आती है.... इस आवाज की विशेषता ये है की ये मुझे भिन्न-भिन्न नाम से पुकारती है और मुझसे पैर दबाने के लिए आग्रह करती है.... और मेरे दो मिनट रुक जाने के आग्रह पर एक लात धर देने की धमकियां देती है.....
ये आवाज़ मेरी माँ की होती है..... फिर मैं दुनिया का एक और सबसे भारी काम करने के लिए मजबूर होता हूँ !..... पर कानों में ठेंपी ठूस कर मैं इस काम को भी जल्दी से जल्दी अंजाम देता हूँ....
5 बजने के साथ ही पापा ऑफिस से घर आ जाते हैं.....
और अब मेरे से चाय बनाने के लिए आग्रह किया जाता है..... ओह! एक और भारी काम.....
इस बीच मैं सोने की भर-पूर कोशिश करता हूँ.... और मुझे चाय बनाने नहीं आती इस बात का मम्मी और पापा को विश्वास दिलाता हूँ....|
बेशर्मी की इस हद को पार करने के साथ ही मेरी माँ चाय के 3 कप सामने टेबल पर लाकर रखती हैं..... और अब मैं एक बार फिर निद्रा के आघोष में होता हूँ..... अब मुझसे एक और एहसान करने की गुजारिश की जाती है, वो ये की मैं उठ कर, पानी हो रही चाय को जल्दी पी लूँ |
पर जाने कहाँ की ढीढता मुझमे भरी है, जो कान पर जू तक नहीं रेंग रही | अंततः होता यही है की मम्मी मेरे नाम पर रखी उस चाय को पी लेती है....
कई बार तो मुझे अपने इस निकम्मेपन पर शर्म भी आती है..... पर जैसा मेरी माँ जानती है शर्म आती है और फिर चली जाती है....|
रात होने के साथ ही खाना खाने की सिफारिश, फिर सोने की सिफारिश और फिर अगले दिन जल्दी उठने की सिफारिश मेरी रोज़ की दिनचर्या का हिस्सा बन गयी है....|
पर यहाँ पर जो भी दिनचर्या हो..... दिल्ली में ऐसी दिनचर्या होती तो कॉलेज से अबतक पचासों और लैटर घर पहुंचे होते....
पर इस बात का यकीन पापा को कौन दिलाये?
पापा का तो, बस यही कहना होता है कि -
दिल्ली में भी ये साहबजादे 12 बजे तक सोते होंगे, वहां कौन-सा हम देखने जा रहे हैं?
सोते हैं इसीलिए तो कॉलेज नहीं जाते है ये, इग्जाम भी सोने के चक्कर में ही छोड़ा होगा इन्होने...?
इनके खाने-पीने का हिसाब सही नहीं है वहां, बस MAGGIE और फास्ट फ़ूड खाते होंगे ये दिल्ली में.....?
पर पापा इस बात को समझिये कि मेरी छुट्टियाँ चल रही है इसलिए मेरी दिनचर्या ऐसी है.....
माँ तो इस बात को समझ जाती है....
पर पापा थोडा भड़क जाते हैं.....
इस कलंकित करने वाली दिनचर्या के लिए माफ़ करियेगा पापा....
पर सच कहूँ तो इस बार, जैसे घर आकर कोई काम ही नहीं सूझ रहा.... इसलिए सो-सो कर ही समय बिता रहा हूँ....
कंप्यूटर के आगे बैठे-बैठे भी सिर चकराने लगता है....
कंप्यूटर भी जाने क्या सोचता होगा मेरे बारे में.... अगर ये बेचारा बोल सकता तो शायद अबतक मुझे लाखों गालियाँ सुना चुका होता.....
वैसे अब बस आशा ये है दिल्ली जा कर जल्द से जल्द अपने काम में लग जाऊ.... सपने देख रखे हैं.... मम्मी पापा को भी सपने दिखा रखे हैं..... दोस्तों को भी दिलासा दे रखा है..... तो उसे पूरा भी तो करूँ.....
बस इसी आशा में जल्द से जल्द 20 तारिख के आने का इंतज़ार कर रहा हूँ....
कब 20 तारिख आएगी और मैं दिल्ली वापस लौटूंगा....
babu sahi hai yar........awsm
जवाब देंहटाएंbahot sahi... acha likha hai..
जवाब देंहटाएंmaza aaya padh kar..
din per din..acha hi likhte ja rahe ho..
gr8
waiting for more..
Betu
Sahi hai Boss, mast likha hai ...tumhari likhawat bhi bahut sundar hai ...
जवाब देंहटाएंthank u rohit bhaiya...
जवाब देंहटाएंsab aap logo ka aashirwaad hai...