फ्लाईओवर

याद है तुम्हें वो फ्लाईओवर,
जो लाजपत नगर के बस स्टैंड के पास गिरता है
जहाँ कॉलेज के दिनों में
हम पहली बार मिले थे
एक शाम जहाँ तुमने सब-वे के अँधेरे में
सहम कर मेरा हाथ पकड़ लिया था,
उलझ गयीं थी मेरी उँगलियाँ तुम्हारी उँगलियों में...
फ़िर न जाने कब तलक़ उलझी रहीं
माँझे की तरह
वो मांझे जिन्हें न मैं काटना चाहता था
न तुम सुलझाना चाहती थी...
आज इस्कॉन मंदिर के उसी पार्क में गया था
जहाँ घंटों बैठ कर
तुम मुझे अपनी ज़ुबान सिखाया करती थी...
और ग़लतियो पर,
माँझों में फंसी मिरी उंगलियों को
अपने दाँतों में भींच लिया करती थी,
और मैं जान-बूझ कर
ग़लतियां दोहराया करता था...
वहीँ एक वो रेस्टोरेंट भी था
जहाँ एक दफ़े तुम घंटों बैठ कर
सिर्फ़ इसलिए रोती रही थी
क्योंकि नौकरी हमारे फ़ासले बढ़ाने लगी थी
तुम्हारे ख़ातिर उस नौकरी को मैंने ठुकरा दिया था
ये तुम्हें बताया नहीं शायद...
मजनूं के टीले की वो तंग गलियां याद हैं तुम्हें
जहाँ चर्च की सीढ़ियों पे बैठ कर
तुमने मुझसे सैकड़ों ग़म बांटे थे...
आज कई दिनों से घूम रहा हूँ
दिल्ली के हर उन कोनों पर
जो हमने उलझे माँझों के गुच्छों में
साथ टहल कर नापे थे...
सिर्फ़ तुम्हारी ज़िद्दों कि ख़ातिर,
वो ज़िद्द जो मुझे बेहद अज़ीज़ थीं...
याद है?
नहीं याद है शायद अब तुम्हें...
क्योंकि,
अब तो तुम ज़िद्द भी नहीं करती...
मांझे जो उलझे थे...
वो कटे तो अब भी नहीं हैं
पर,
ये सुलझने कैसे लगे हैं?
ये अचानक कहाँ ग़ायब हो गया वो सब कुछ
जो मैंने तुमसे जोड़ कर रखा था...
वो सब-वे, वो रेस्टोरेंट, वो पार्क, वो गलियाँ
जहाँ तुम अक्सर मुझे मिल जाया करती थी...
अब कहीं नज़र नहीँ आते...
हाँ,
वो फ्लाईओवर तो अब भी है...
मुन्तज़िर जिसके उसी छोर पे
मैं अब भी खड़ा हूँ
सब-वे के उन्हीं अंधेरों में...
वही फ्लाईओवर,
जो लाजपत नगर के बस स्टैंड के पास गिरता है...

टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुन्दर लिखा है बेटा.......पहली नज्म और इतने खूबसूरत लफ्ज़....खूब तरक्की करो.....कामयाब रहो....लिखते रहो....

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मेरी शुरुआत...

वो डायरी, वो नज़्म...