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याद तो सब कुछ आता है...

आम तौर पर लोगो की दिन की शुरुआत होती है भजन, पूजा-पाठ, चाय समोसे या नाश्ते से | पर मेरी दिन की शुरुआत हुई पापा की डांट-डपट, गालियों के साथ.... घड़ी में 12 .15 बज रहे थे... अभी आँख खुली भी नहीं थी की फोन की घंटी कानो में पड़ी और फोन उठाने के साथ ही आवाज आई की- "अभी तक सो रहे हो?" ... "नहीं ! पापा.....नहीं ! पापा " कह कर मैंने भी बात को टरकाने की कोशिश की.... "चलो जाओ बहुत हो गया सोना, उठो और ब्रश कर के फटाफट नहालो |" मैंने भी नहाने का भरपूर विरोध करते हुए कहा की नहीं, कल ही तो नहाया था अब आज नहीं नहाऊंगा.... "आज मंगलवार है चूहा बिल्ली तक नहाता है और तुम नहीं नहाओगे? मैं 5 मिनट में घर पहुँच रहा हूँ, नहा-धो कर तैयार रहो....." फिर तो न जाने कौन-सी ताक़त मुझमे आ गयी... और पापा के डर ने आज लगातार दूसरे दिन भी मुझे नहला दिया.... मम्मी को स्कूल से लेकर आने के साथ ही पापा ने मेरे से पूछा- "नहाये तुम?" "हाँ ! पापा..... न विश्वास हो तो बाल छू कर देख लीजिये, अब तक गीले हैं |" साथ ही पापा ने बालो में ऊँगली डाल कर टटोलना शुरू कर दि...

कुछ पल आज़ादी के....

आज़ादी दिवस और मेरी आज़ादी.....   ...मेरी दिनचर्या पर एक नज़र...  बीतते- बिताते एक और दिन यूं ही निकल गया.... छुट्टियाँ सिर्फ कहने को छुट्टियाँ हैं | जब तक दिनचर्या एक ऊट-पटांग-सा रूप न लेले तब तक कॉलेज से मिली एक महीने की छुट्टी का आभास ही नहीं होता.... देर-सवेर उठना, उठ कर घड़ी देखकर फिर सो जाना, उठते ही सबसे पहले कंप्यूटर के दर्शन करना, मन आने पर नहाना, मन न होने पर पचासों झूठे बहाने बना देना..... ये सभी कुछ मेरी दिनचर्या में शामिल है | कुछ इसी तरह आज का दिन भी उदित हुआ... रोज़ की तरह माँ ने आज भी पहले तो प्यार भरी आवाज में पुकारना शुरू किया, पर धीरे-धीरे वो प्यार भरी आवाज़ कानो को चुभने-सी लगीं और आँखें खोलने पर ये मालूम हुआ की माँ सिर पर खड़ी हैं, पापा वक़्त से पहले ही आजादी दिवस मनाने सेलिब्रेशन के ग्राउंड पर पहुंचे हुए हैं, और माँ को स्कूल तक छोड़ने की ड्यूटी आज मेरी है....! ये मेरे लिए सबसे बड़ी सजा है | इस लिए नहीं कि मुझे, "माँ" को छोड़ने जाना है बल्कि इसलिए क्योंकि "मुझे" माँ को छोड़ने जाना है.... सवेरे उठ कर अगर कोई मुझे मेरी फेवरेट डिश "चिल्ली...

नाना के नाम...

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आप बहुत याद आते हैं ! "नाना" मैं ये सोचते और अफ़सोस करते बनारस के लिए निकला कि मेरे बर्थडे के दिन ही नाना हम सब को छोड़ कर चले गए | हाथ पैर ठन्डे पड गए थे, जब अपने मामा को पापा से बात करते हुए मैंने सुना था | निकलने के बाद कार में बैठे बैठे मैं बस माँ की सूजी हुई आँखों को देख रहा था और मन ही मन बनारस घर कि स्थिति का अंदाजा लगा रहा था | सोच कर ही मन अजीब-सा हो रहा था कि-  कैसे मामू नाना को लेकर घर पहुंचा होगा ? कैसा लगा होगा उस वक़्त नानी को ? क्या दशा हुई होगी नानी की ? ऐसे अनेक सवाल मेरे मन में आते जाते रहते थे, खैर मैंने ये सब अपनी आँखों से तो नहीं देखा पर मन ही मन मैं इन बातों का अंदाजा लगा सकता था | रात 11 बजे के निकले हम सवेरे 5 बजे बनारस पहुंचे | गाड़ी में बैठे बैठे मैं सब के चेहरे देख रहा था | इसके सिवा जैसे कोई काम भी नहीं था मेरे पास | माँ बस रोती ही जा रही थीं | घर के गेट पर पहुँचते ही माँ के मुंह से निकला- हे! राम | साथ ही मेरा और माँ का रोना शुरू था | कभी जिस आदमी को ज़मीन पर नंगे पैर चलते नहीं देखा, आज उन्ही को ज़मीन पर एक दम मौन पड़ा देखकर बहुत ख़राब लग रहा था, ...

मेरी शुरुआत...

अपनी टीचर्स और कुछ बड़ी हस्तियों से प्रोतसाहित होकर जाने कब से मैं भी ब्लॉग लिखने का मन बना रहा था | जब कभी न्यूज़ चेनेल या प्रोग्राम में, अमिताभ बच्चन या अपने जैसे आम लोगो को ब्लॉग आदि लिखता देखता था, तो यही सोचता था की- "यार ! काश मेरी भी भाषा उतनी सशक्त और सटीक होती, जितनी की धर्मवीर भारती, प्रेमचंद्र  और महादेवी वर्मा की हुआ करती थी | तो फिर तो मैं भी बिना किसी डर और हिचकिचाहट के लोगो तक अपने मनो भावों, अपनी सोच और अपने विचारों को बाँट पाता |"  हर सवेरे, इन्टरनेट पर काम शुरू करने के साथ ही, दिमाग में बस ये ख्याल आता था की आखिर अलमारी में रखी मेरी उस डायरी के पन्नो पर जो शब्द मैंने उकेरे हैं, जिन शब्दों को मैंने रात-रात भर जाग कर, 3.00 / 4.00 बजे तक बैठ कर इतनी  मेहनत से  संजोया है, कहीं वे ऐसे ही धरे-धरे अपना अस्तित्व तो नहीं खो देंगे, कहीं वे सिर्फ और सिर्फ दीमकों का आहार बनकर तो नहीं रह जायेंगे | कॉलेज से छुट्टियों में जब भी मैं घर आता हूँ, मेरी माँ हमेशा मुझे यही समझाती है- "उन शब्दों को डायरी तक ही सीमित मत रख मूर्ख, उसे ब्लॉग पर लिख, बाँट, उसे और सुधार...