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जुलाई, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

शख़्सियत थे... कलाम...

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स्काउटिंग के वो दिन आज भी याद हैं मुझे… जब किसी बड़ी हस्ती को देखने की होड़ में हम कुछ भी करने को राज़ी हो जाते थे… स्काउटिंग में हरिद्वार जम्बूरी के वो दिन आज एक बार फिर आँखों के सामने तरो-ताज़ा हो गए जब उदघाटन के दिन हम ये शर्त लगा रहे थे की अब्दुल कलाम साहब का काफ़िला किस तरफ़ से आएगा और जब वो आएंगे तो हमें देखेंगे या नहीं.... भीड़ के एक कोने में हम अपनी-अपनी जगह बनाये, टकटकी लगाये मुख्य द्वार की ओर ताक  रहे थे की अब्दुल कलाम साहब का काफ़िला कब आयेगा… सबकी हसरतें अपने चरम पे थी.… हसरतें भी ऐसी, कि जैसे कलाम साहब हमसे ही मिलने आ रहे हों...  काफ़िले के आगमन के साथ ही हम सब ख़ुशी के मारे पगला गए...  अपना-अपना स्थान छोड़ कर भीड़ से ऊँचे खड़े होने लगे और जितनी तेज़ ताली बजा सकते थे बजाने लगे...तब तक बजाते रहे जब तक हाथ लाल नहीं हो गए और कलाम साहब ने शामियाने में अपना स्थान नहीं ग्रहण कर लिया… भीड़ में कुछ लोग इतने उत्साहित थे जिन्हे ज़बरदस्ती बैठना पड़ रहा था… और कहना पड़  रहा था की भाई साहब बैठ जाओ तो कुछ हम भी देख लें… कुछ वो लोग, जिनके लिए...

तुम याद बहुत आओगे दोस्त...

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ऑफिस में  12 घंटे की ज़द्दोज़हद के बाद मैं ये सोच के घर के लिए रवाना हुआ की कल छुट्टी है और कल बहुत से काम निबटाने हैं. रास्ते में फोन की घंटी टनटनाई एक बड़ा ही विचलित कर देने वाला मैसेज  मिला. उस मैसेज को पढ़ कर अब भी रूह काँप उठ रही है. मैसेज में साफ़ शब्दों में लिखा था की "खरे नहीं रहा !" पढ़ के ऐसा लगा जैसे रोड पर चलते-चलते अभी गश खा के गिर जाऊंगा…  एक बार को विश्वास नहीं हुआ मैंने दुबारा मैसेज को पढ़ा.… अब मैं उस बात पर विश्वास नहीं करना चाहता था.… व्याकुलता अपने चरम पर थी.... अचानक बैठे बिठाये ऐसा कैसे संभव है.... क्या हुआ होगा? कैसे हुआ? कब हुआ? कहाँ हुआ? क्यों हुआ? अनेक सवाल एकाएक मन में कुलबुलाने लगे... किस्से पूछूं? फ़ोन की एड्रेस बुक खंगाल डाली … कोई परिणाम सामने न आने पर मैंने आनन फानन में शुभम के नंबर पे ही फोन घुमा दिया… "द नंबर यू आर ट्राइंग टू कॉल इज़ कर्रेंटली स्विचड ऑफ"… मन और व्याकुल हो उठा... अब क्या करूँ? अब किस्से पूछूं? दोस्तों के मैसेज एक के बाद एक दस्तक दे रहे थे… हर किसी को ये पता था की हुआ क्या है मगर ये किसी को नही...