शख़्सियत थे... कलाम...
स्काउटिंग के वो दिन आज भी याद हैं मुझे… जब किसी बड़ी हस्ती को देखने की होड़ में हम कुछ भी करने को राज़ी हो जाते थे… स्काउटिंग में हरिद्वार जम्बूरी के वो दिन आज एक बार फिर आँखों के सामने तरो-ताज़ा हो गए जब उदघाटन के दिन हम ये शर्त लगा रहे थे की अब्दुल कलाम साहब का काफ़िला किस तरफ़ से आएगा और जब वो आएंगे तो हमें देखेंगे या नहीं.... भीड़ के एक कोने में हम अपनी-अपनी जगह बनाये, टकटकी लगाये मुख्य द्वार की ओर ताक रहे थे की अब्दुल कलाम साहब का काफ़िला कब आयेगा… सबकी हसरतें अपने चरम पे थी.… हसरतें भी ऐसी, कि जैसे कलाम साहब हमसे ही मिलने आ रहे हों... काफ़िले के आगमन के साथ ही हम सब ख़ुशी के मारे पगला गए... अपना-अपना स्थान छोड़ कर भीड़ से ऊँचे खड़े होने लगे और जितनी तेज़ ताली बजा सकते थे बजाने लगे...तब तक बजाते रहे जब तक हाथ लाल नहीं हो गए और कलाम साहब ने शामियाने में अपना स्थान नहीं ग्रहण कर लिया… भीड़ में कुछ लोग इतने उत्साहित थे जिन्हे ज़बरदस्ती बैठना पड़ रहा था… और कहना पड़ रहा था की भाई साहब बैठ जाओ तो कुछ हम भी देख लें… कुछ वो लोग, जिनके लिए...