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वो डायरी, वो नज़्म...

इक मुद्दत बाद, आज अलमारी की दराज़ खंगाली कई क़िताबों और अख़बारों के बोझ में दबी अपनी डायरी को सिसकते देखा एक दशक से दबी हो जैसे... धूल की एक मोटी परत उसकी आँखों को जकड़े हुए थी सीलन की बू उसका दम घोंट रही थी गोद में उठा कर मैंने उसे सीने से लगा लिया आँसू पोंछे उसके... जाने कब से तन्हा दबी पड़ी थी वहाँ मैं भी बड़ा बे-फ़िक्र किस्म का इंसान हूँ, इतने बोझों के बीच न जाने कितने ही दिनों से सिसक रही होगी अब तो ज़िल्द भी भीग कर गलने लगा है उसका हिचकियों पर कुछ हिस्से उसके बदन से झड़ कर गिरे जा रहे हैं... मैं फ़ौरन उसे धूप में लेकर चला गया ये सोच कर की शायद उसकी साँसे लौट आएं... रेलिंग पर रख कर मैंने उसके पन्ने पलटने चाहे पर वो भी अब आंसुओं के गोंद से चिपकने लगे हैं, सुनहरे रंग के उसके पन्ने अब ख़ुश्क पड़ने लगे हैं, पन्नों पे पड़ी सिलवटें उसके कानों में गूँज रहे अलमारी के सन्नाटे बयां कर रही थी... ज़िल्द के उधड़े धागे उन अंधेरों के ख़ौफ़ का मंज़र बता रहे थे... कुछ नज़्म कुछ जज़्बात जो अनेक रंग की स्याहियों से दर्ज़ किये थे मैंने उसके सीने में अब धुंधले पड़ने लग...

फ्लाईओवर

याद है तुम्हें वो फ्लाईओवर, जो लाजपत नगर के बस स्टैंड के पास गिरता है जहाँ कॉलेज के दिनों में हम पहली बार मिले थे एक शाम जहाँ तुमने सब-वे के अँधेरे में सहम कर मेरा हाथ पकड़ लिया था, उलझ गयीं थी मेरी उँगलियाँ तुम्हारी उँगलियों में... फ़िर न जाने कब तलक़ उलझी रहीं माँझे की तरह वो मांझे जिन्हें न मैं काटना चाहता था न तुम सुलझाना चाहती थी... आज इस्कॉन मंदिर के उसी पार्क में गया था जहाँ घंटों बैठ कर तुम मुझे अपनी ज़ुबान सिखाया करती थी... और ग़लतियो पर, माँझों में फंसी मिरी उंगलियों को अपने दाँतों में भींच लिया करती थी, और मैं जान-बूझ कर ग़लतियां दोहराया करता था... वहीँ एक वो रेस्टोरेंट भी था जहाँ एक दफ़े तुम घंटों बैठ कर सिर्फ़ इसलिए रोती रही थी क्योंकि नौकरी हमारे फ़ासले बढ़ाने लगी थी तुम्हारे ख़ातिर उस नौकरी को मैंने ठुकरा दिया था ये तुम्हें बताया नहीं शायद... मजनूं के टीले की वो तंग गलियां याद हैं तुम्हें जहाँ चर्च की सीढ़ियों पे बैठ कर तुमने मुझसे सैकड़ों ग़म बांटे थे... आज कई दिनों से घूम रहा हूँ दिल्ली के हर उन कोनों पर जो हमने उलझे माँझों के गुच्छों में साथ टहल...

मियाँ नरेंद्र मोदी...

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आज सुबह से अजीबो ग़रीब वाक़िये हो रहे हैं... सबसे पहले भारतीय रेलवे की ट्रेन अपने समय से अनुमानित आधे घंटे पहले स्टेशन पहुँचती है फिर स्टेशन के बहार एक टी स्टॉल पर नरेंद्र मोदी जी की चाय... मैं नरेंद्र मोदी इसलिए कह रहा हूँ चूंकि नीचे लगी तस्वीरें उन्हीं मियाँ के टी-स्टॉल की है जो ख़ुद को नरेंद्र मोदी होने का दावा करते हैं... बातचीत के दौरान मोदी की खूबियाँ गिनाने लगे... मियाँ रहने वाले आज़मगढ़ के और भक्त मोदी के... अजीब विडम्बना है... आज़मगढ़, उत्तर प्रदेश का वो जिला है जहाँ मुसलमानों की आबादी शायद सबसे अधिकतम है... अलबत्ता 10 लाख की आबादी में ऐसे छुट-पुट मोदी भक्त मिल ही जाते हैं.. सैकड़ों सवाल करने पर भी मियाँ ने अपना असली नाम नहीं बताया.. बस इसी बात पे अड़े रहे की नरेंद्र मोदी ही नाम है... मैं जान बूझ कर बार-बार उन्हें कुरेदता रहा... ख़ुदा का वास्ता देने पर कहने लगे दरअसल असली नाम गुफ़्रान अहमद है मगर मैं जात-पात पर यक़ीन नहीं करता... मोदी जी मेरे लिए आदर्श हैं... मैं सिर्फ़ उनके आदर्शों पे चलता हूँ... मुद्दे की बात ये है की मोदी अगर आदर्श हैं तो मोदी की बातें क्यों नहीं... एक गिलास चा...

शख़्सियत थे... कलाम...

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स्काउटिंग के वो दिन आज भी याद हैं मुझे… जब किसी बड़ी हस्ती को देखने की होड़ में हम कुछ भी करने को राज़ी हो जाते थे… स्काउटिंग में हरिद्वार जम्बूरी के वो दिन आज एक बार फिर आँखों के सामने तरो-ताज़ा हो गए जब उदघाटन के दिन हम ये शर्त लगा रहे थे की अब्दुल कलाम साहब का काफ़िला किस तरफ़ से आएगा और जब वो आएंगे तो हमें देखेंगे या नहीं.... भीड़ के एक कोने में हम अपनी-अपनी जगह बनाये, टकटकी लगाये मुख्य द्वार की ओर ताक  रहे थे की अब्दुल कलाम साहब का काफ़िला कब आयेगा… सबकी हसरतें अपने चरम पे थी.… हसरतें भी ऐसी, कि जैसे कलाम साहब हमसे ही मिलने आ रहे हों...  काफ़िले के आगमन के साथ ही हम सब ख़ुशी के मारे पगला गए...  अपना-अपना स्थान छोड़ कर भीड़ से ऊँचे खड़े होने लगे और जितनी तेज़ ताली बजा सकते थे बजाने लगे...तब तक बजाते रहे जब तक हाथ लाल नहीं हो गए और कलाम साहब ने शामियाने में अपना स्थान नहीं ग्रहण कर लिया… भीड़ में कुछ लोग इतने उत्साहित थे जिन्हे ज़बरदस्ती बैठना पड़ रहा था… और कहना पड़  रहा था की भाई साहब बैठ जाओ तो कुछ हम भी देख लें… कुछ वो लोग, जिनके लिए...

तुम याद बहुत आओगे दोस्त...

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ऑफिस में  12 घंटे की ज़द्दोज़हद के बाद मैं ये सोच के घर के लिए रवाना हुआ की कल छुट्टी है और कल बहुत से काम निबटाने हैं. रास्ते में फोन की घंटी टनटनाई एक बड़ा ही विचलित कर देने वाला मैसेज  मिला. उस मैसेज को पढ़ कर अब भी रूह काँप उठ रही है. मैसेज में साफ़ शब्दों में लिखा था की "खरे नहीं रहा !" पढ़ के ऐसा लगा जैसे रोड पर चलते-चलते अभी गश खा के गिर जाऊंगा…  एक बार को विश्वास नहीं हुआ मैंने दुबारा मैसेज को पढ़ा.… अब मैं उस बात पर विश्वास नहीं करना चाहता था.… व्याकुलता अपने चरम पर थी.... अचानक बैठे बिठाये ऐसा कैसे संभव है.... क्या हुआ होगा? कैसे हुआ? कब हुआ? कहाँ हुआ? क्यों हुआ? अनेक सवाल एकाएक मन में कुलबुलाने लगे... किस्से पूछूं? फ़ोन की एड्रेस बुक खंगाल डाली … कोई परिणाम सामने न आने पर मैंने आनन फानन में शुभम के नंबर पे ही फोन घुमा दिया… "द नंबर यू आर ट्राइंग टू कॉल इज़ कर्रेंटली स्विचड ऑफ"… मन और व्याकुल हो उठा... अब क्या करूँ? अब किस्से पूछूं? दोस्तों के मैसेज एक के बाद एक दस्तक दे रहे थे… हर किसी को ये पता था की हुआ क्या है मगर ये किसी को नही...