एक उस एकांत को चुना था मैंने जब घने काले इन चुनिंदा पहरों में ख़ुद पर निर्भर मैं दूर किसी मीनार में इक गुमनाम क़ैदी सा... रगों में तुम थे तो सही मगर , इन सख़्त पत्थरनुमा दीवारों माफ़िक अब ठन्डे पड़ चुके थे.. जिस एकांत को हमेशा चुना था मैंने उसने बेघर कर दिया मुझे पाया तो पहले भी कुछ नहीं था मग़र अब तो खोने को भी कुछ बाकी नहीं अब भी दोहराए जाता हूँ वही ग़लतियाँ , वही गुस्ताखियाँ हर बार , हर क़दम पर... उस शिव मंदिर के पास जिसकी छत से तुम्हारी खिड़की दिखा करती थी वही खिड़की जिसके उस छोर पर पीपल के पत्तों के बीच से तपते सूरज को देखते तमाम शामें कट जाया करती थीं वहीँ खो दिया था मैंने शायद तुम्हे... अब तो कई दफ़े ख़ोज भी आया हूँ उस मंदिर की छत पर उन पीपल की शाखों में उन खिड़कियों के शीशों पर जमी धूल पर जिन पर अक्सर तुम मेरा नाम लिख दिया करते थे , कुछ हर्फ़ तो अब भी नज़र आते हैं मगर मेरे नाम से मेल नहीं खाते... उँगलियों के निशान भी अब बदले-बदले से हैं किसी और के होंगे शायद... कुछ खरोचें जो पड़ी थी तुम्हारे गुम होने के बाद अब नील