संदेश

धब्बा

एक बार अपनी आंख बंद करो, दिल के भीतर जाओ अपने... थोड़ा नीचे, निचले हिस्से में, बायीं ओर, कोने में... बहुत सारी यादें दबी पड़ी हैं जहां... वहां देखो इक काले रंग का धब्बा दिखेगा तुम्हें.. वही धब्बा हूँ मैं... इधर काफ़ी दिनों से कोई आता जाता नही यहां, इसलिए अपने ही अंधेरे से थोड़ा काला पड़ गया हूँ... छुओ मुझे, फिर से रंगीन कर दो इक बार... -चित्रार्थ

एहसास

ज़हन में कितनी बातें याद रखूँ... एहसासों का समंदर सैलाब लेकर आता है ज़िन्दगी हक़ीक़त के पहाड़ो से भरी पड़ी है... लहरें टकराती हैं तो न क़लम बचती है न कागज़... -चित्रार्थ

भ्रम

काश इतना टूटा न होता मुझे इतना टूटना नहीं था... तुम होते तो शायद जोड़ कर रखते मुझे तुम तो कभी दूर नहीं होना चाहते थे मुझसे! तुम्हारी चुनिन्दा अजीज़ चीज़ों में मैं भी तो शामिल था पर अब नहीं रहा उतना अजीज़ शायद! इन चार दीवारी सन्नाटों में छोड़ कर मुझे जाने किन ख़लाओं में तुम खो गए हो अब जब वाकई ज़रूरत है मुझे तुम्हारी... एक ग़म कटा नहीं दूसरा नाहक़ सर पर है तुम होते तो बाँट लेता तुमसे दर्द सारे सारे ग़म... मेरा भरोसा तो न टूटता मेरा भ्रम तुम जरुर तोड़ देते... इन फ़ासलों में कैसा बंट गया हूँ के न सहने का जिगरा होता है और न कहने को तुम... मुन्तज़िर तो उम्र भर रहूँगा तुम्हारी वापसी का... पर मंज़र शायद बहुत सा बदल चुका होगा... तकदीरें बदल चुकी होंगी बदल चुका होगा फ़ैसला भी शायद मैं भी बहुत सा बदल जाऊं... लेकिन यूँ टूटने जुड़ने का डर हमेशा झकझोड़ेगा मुझे... भरोसा उठने लगा है अब ख़ुद से और तुमसे भी... अब अगर कभी लौट कर आ भी जाओ तो रहने देना मुझे इसी भ्रम में क्योंकि अब तो भ्रम में ही सुकून आता है और सुकून से हूँ भ्रम में मैं... -चित्रार्थ

एकांत

एक उस एकांत को चुना था मैंने जब घने काले इन चुनिंदा पहरों में ख़ुद पर निर्भर मैं दूर किसी मीनार में इक गुमनाम क़ैदी सा... रगों में तुम थे तो सही मगर , इन सख़्त पत्थरनुमा दीवारों माफ़िक अब ठन्डे पड़ चुके थे.. जिस एकांत को हमेशा चुना था मैंने उसने बेघर कर दिया मुझे पाया तो पहले भी कुछ नहीं था मग़र अब तो खोने को भी कुछ बाकी नहीं अब भी दोहराए जाता हूँ वही ग़लतियाँ , वही गुस्ताखियाँ हर बार , हर क़दम पर... उस शिव मंदिर के पास जिसकी छत से तुम्हारी खिड़की दिखा करती थी वही खिड़की जिसके उस छोर  पर पीपल के पत्तों के बीच से तपते सूरज को देखते तमाम शामें कट जाया करती थीं वहीँ खो दिया था मैंने शायद तुम्हे... अब तो कई दफ़े ख़ोज भी आया हूँ उस मंदिर की छत पर उन पीपल की शाखों में उन खिड़कियों के शीशों पर जमी धूल पर जिन पर अक्सर तुम मेरा नाम लिख दिया करते थे , कुछ हर्फ़ तो अब भी नज़र आते हैं मगर मेरे नाम से मेल नहीं खाते... उँगलियों के निशान भी अब बदले-बदले से हैं किसी और के होंगे शायद... कुछ खरोचें जो पड़ी थी तुम्हारे गुम होने के बाद अब नील

वो डायरी, वो नज़्म...

इक मुद्दत बाद, आज अलमारी की दराज़ खंगाली कई क़िताबों और अख़बारों के बोझ में दबी अपनी डायरी को सिसकते देखा एक दशक से दबी हो जैसे... धूल की एक मोटी परत उसकी आँखों को जकड़े हुए थी सीलन की बू उसका दम घोंट रही थी गोद में उठा कर मैंने उसे सीने से लगा लिया आँसू पोंछे उसके... जाने कब से तन्हा दबी पड़ी थी वहाँ मैं भी बड़ा बे-फ़िक्र किस्म का इंसान हूँ, इतने बोझों के बीच न जाने कितने ही दिनों से सिसक रही होगी अब तो ज़िल्द भी भीग कर गलने लगा है उसका हिचकियों पर कुछ हिस्से उसके बदन से झड़ कर गिरे जा रहे हैं... मैं फ़ौरन उसे धूप में लेकर चला गया ये सोच कर की शायद उसकी साँसे लौट आएं... रेलिंग पर रख कर मैंने उसके पन्ने पलटने चाहे पर वो भी अब आंसुओं के गोंद से चिपकने लगे हैं, सुनहरे रंग के उसके पन्ने अब ख़ुश्क पड़ने लगे हैं, पन्नों पे पड़ी सिलवटें उसके कानों में गूँज रहे अलमारी के सन्नाटे बयां कर रही थी... ज़िल्द के उधड़े धागे उन अंधेरों के ख़ौफ़ का मंज़र बता रहे थे... कुछ नज़्म कुछ जज़्बात जो अनेक रंग की स्याहियों से दर्ज़ किये थे मैंने उसके सीने में अब धुंधले पड़ने लग

फ्लाईओवर

याद है तुम्हें वो फ्लाईओवर, जो लाजपत नगर के बस स्टैंड के पास गिरता है जहाँ कॉलेज के दिनों में हम पहली बार मिले थे एक शाम जहाँ तुमने सब-वे के अँधेरे में सहम कर मेरा हाथ पकड़ लिया था, उलझ गयीं थी मेरी उँगलियाँ तुम्हारी उँगलियों में... फ़िर न जाने कब तलक़ उलझी रहीं माँझे की तरह वो मांझे जिन्हें न मैं काटना चाहता था न तुम सुलझाना चाहती थी... आज इस्कॉन मंदिर के उसी पार्क में गया था जहाँ घंटों बैठ कर तुम मुझे अपनी ज़ुबान सिखाया करती थी... और ग़लतियो पर, माँझों में फंसी मिरी उंगलियों को अपने दाँतों में भींच लिया करती थी, और मैं जान-बूझ कर ग़लतियां दोहराया करता था... वहीँ एक वो रेस्टोरेंट भी था जहाँ एक दफ़े तुम घंटों बैठ कर सिर्फ़ इसलिए रोती रही थी क्योंकि नौकरी हमारे फ़ासले बढ़ाने लगी थी तुम्हारे ख़ातिर उस नौकरी को मैंने ठुकरा दिया था ये तुम्हें बताया नहीं शायद... मजनूं के टीले की वो तंग गलियां याद हैं तुम्हें जहाँ चर्च की सीढ़ियों पे बैठ कर तुमने मुझसे सैकड़ों ग़म बांटे थे... आज कई दिनों से घूम रहा हूँ दिल्ली के हर उन कोनों पर जो हमने उलझे माँझों के गुच्छों में साथ टहल

मियाँ नरेंद्र मोदी...

चित्र
आज सुबह से अजीबो ग़रीब वाक़िये हो रहे हैं... सबसे पहले भारतीय रेलवे की ट्रेन अपने समय से अनुमानित आधे घंटे पहले स्टेशन पहुँचती है फिर स्टेशन के बहार एक टी स्टॉल पर नरेंद्र मोदी जी की चाय... मैं नरेंद्र मोदी इसलिए कह रहा हूँ चूंकि नीचे लगी तस्वीरें उन्हीं मियाँ के टी-स्टॉल की है जो ख़ुद को नरेंद्र मोदी होने का दावा करते हैं... बातचीत के दौरान मोदी की खूबियाँ गिनाने लगे... मियाँ रहने वाले आज़मगढ़ के और भक्त मोदी के... अजीब विडम्बना है... आज़मगढ़, उत्तर प्रदेश का वो जिला है जहाँ मुसलमानों की आबादी शायद सबसे अधिकतम है... अलबत्ता 10 लाख की आबादी में ऐसे छुट-पुट मोदी भक्त मिल ही जाते हैं.. सैकड़ों सवाल करने पर भी मियाँ ने अपना असली नाम नहीं बताया.. बस इसी बात पे अड़े रहे की नरेंद्र मोदी ही नाम है... मैं जान बूझ कर बार-बार उन्हें कुरेदता रहा... ख़ुदा का वास्ता देने पर कहने लगे दरअसल असली नाम गुफ़्रान अहमद है मगर मैं जात-पात पर यक़ीन नहीं करता... मोदी जी मेरे लिए आदर्श हैं... मैं सिर्फ़ उनके आदर्शों पे चलता हूँ... मुद्दे की बात ये है की मोदी अगर आदर्श हैं तो मोदी की बातें क्यों नहीं... एक गिलास चा